Tuesday, 26 May 2015

क्या हमारा आजमगढ़ भी स्मार्ट सिटी बन पायेगा ?

क्या हमारा आजमगढ़ भी स्मार्ट सिटी बन पायेगा ?

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1) जहाँ कोई सार्वजानिक सौचालय की व्यवस्था न हो 
2) सार्वजानिक पार्किंग की व्यवस्था न हो (यदि होगा भी तो आज तक दिखा नहीं )
3) नालियाँ ढलान से ऊंचाई की तरफ बहती हों 
4) सड़कें बनाने के साथ टूटने लगती हों 
5) हर छोटी छोटी बातों पर लोग मारने मरने को तैयार हो जाते हो 
6) थूकने पर स्वतंत्रता इस कदर की है यदि आप संभल कर नहीं चलेंगे तो आपके ऊपर तक लोग थूकने से गुरेज नहीं करते 
7) जहाँ सिर्फ राजनीति पोषित हो 
8)की जनता हर साल बाढ़ से मर रही हो 
9) यदि बाढ़ से बच गए तो सुखा अवश्य जान ले लेगी 
10) जहाँ के लोग सड़क पर गाडी नहीं हवाई जहाज चलते हों 
11) यहाँ साइकिल भी मोटर साइकिल को ओवरटेक करने की माद्दा रखती हो 
12) बिना सुविधा शुल्क के कोई काम नहीं होता हो (सुविधा शुल्क मतलब ब्राइब )
13) जहाँ ताला एक से दो दिन लटका नहीं की चोरी और डकैती होते देर नहीं लगती हो 
14) यहाँ सभी यही चाहते हैं की नाली उनके घर के सामने से न निकले लेकिन उनके घरों का गन्दा पानी बहता हुआ किसी और के घर में घूस जाए 
15) कूड़ा हमेसा दुसरे के घिरे हुए प्लाट में फेंकेंगे यह सोच हो जहाँ का 
16) कूड़ेदान नहीं बनाने देंगे क्योंकि जिस सरकारी जमीन पर कूड़ेदान बनेगी वह मेरे मकान के बगल में है 
17) सफाई अभियान नहीं चलाने देंगे क्योंकि झाड़ू लगाने से धुल रोशनदान से होकर घर में आता है 
18) सबसे बड़ी बात दुसरे के काम में अडंगा जरुर लगायेंगे चाहे अपना कितना भी खर्च हो जाए ....यह सबसे बड़ी विशेषता हैं यहाँ के लोगों में .......................!!!
तो कैसे बनाये अपने सपनों का शहर " आजमगढ़" 
हो सकता है यह पोस्ट पढ़कर कुछ लोगों को शर्म आये और वे सहयोग करने को तैयार भी हो जाएँ ....
लेकिन कुछ ऐसे लोग भी होंगे जो मेरा एड्रेस पता कर रहे होंगे ...की छोड़ेंगे नहीं इस साले को ...!!
क्षमा चाहता हूँ ....क्योंकि हम आज़मगढ़िया हैं बिना गाली गलौज के कोई बात शुरू ही नहीं करते तो ख़तम कैसे कर दें ...!!!
धन्यवाद 

आशुतोष सिंह कौशिक

(जिला पंचायत क्षेत्र हाफिजपुर) 
             आजमगढ़

Sunday, 24 May 2015

काजू भुने प्लेट में विस्की गिलास में उतरा है रामराज विधायक निवास में

काजू भुने प्लेट में विस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में
पक्के समाजवादी हैं तस्कर हों या डकैत
इतना असर है खादी के उजले लिबास में
आजादी का वो जश्न मनायें तो किस तरह
जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में
पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें
संसद बदल गयी है यहाँ की नखास में
जनता के पास एक ही चारा है बगावत
यह बात कह रहा हूँ मैं होशो-हवास में
-अदम गोंडवी

मैं मजदूर हूँ

‘‘मैं मजदूर हूँ मुझे देवों की बस्ती से क्या!, अगणित बार धरा पर मैंने स्वर्ग बनाये,
अम्बर पर जितने तारे उतने वर्षों से, मेरे पुरखों ने धरती का रूप सवारा’’
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वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है
उसी के दम से रौनक आपके बंगले में आई है
इधर एक दिन की आमदनी का औसत है चवन्नी का
उधर लाखों में गांधी जी के चेलों की कमाई है
कोई भी सिरफिरा धमका के जब चाहे जिना कर ले
हमारा मुल्क इस माने में बुधुआ की लुगाई है
रोटी कितनी महँगी है ये वो औरत बताएगी
जिसने जिस्म गिरवी रख के ये क़ीमत चुकाई है
 -अदम गोंडवी

सर झुकाओगे तो पत्थर देवता हो जाएगा

सर झुकाओगे तो पत्थर देवता हो जाएगा
इतना मत चाहो उसे, वो बेवफ़ा हो जाएगा
हम भी दरिया हैं, हमें अपना हुनर मालूम है
जिस तरफ भी चल पड़ेंगे, रास्ता हो जाएगा
कितनी सच्चाई से मुझ से ज़िन्दगी ने कह दिया
तू नहीं मेरा, तो कोई दूसरा हो जाएगा
मैं ख़ुदा का नाम लेकर पी रहा हूँ दोस्तो
ज़हर भी इसमें अगर होगा, दवा हो जाएगा
सब उसी के हैं हवा, ख़ुश्बू, ज़मीनो-आसमाँ
मैं जहाँ भी जाऊँगा, उसको पता हो जाएगा..............: बशीर बद्र 

Tuesday, 19 May 2015

पूर्वांचल की बेहाली पर सिर्फ उफ् उफ्...

पूर्वांचल की बेहाली पर सिर्फ उफ् उफ्...

पूर्वांचल का नाम आते ही जेहन में अपराध, अपराधी, गोली, बंदूक, राइफल, आतंक और आतंकी उभरने लगते हैं। संजरपुर, सैदपुर, आजमगढ़, गाजीपुर व मऊ दिखने लगता है। न बनारस का विद्वत मंडल न मऊ की अद्भुत रेशमी साडि़यों के ताने-बाने और न जौनपुर की शान सुनाई पड़ती है। जिला जवांर, गांव-गिरांव और कस्बे व चट्टियों के मोड़ और चौराहों पर चौतरफा अपराध व अपराधियों की चर्चा आम है। यानी, लोगों में चर्चा का विषय यही सब है। वजह जो भी हो, लेकिन सबसे बड़ी वजह है बेरोजगारी, गरीबी और बदलते परिवेश वाली शिक्षा का अभाव। कहने को कहा जाता है, सघन शिक्षालयों की भरमार है। बनारस में तीन विश्वविद्यालय और न जाने कितने महाविद्यालय हैं। पड़ोस के जौनपुर में पूर्वांचल विश्वविद्यालय, कोई २०० किमी दूर गोरखपुर विश्वविद्यालय, इलाहाबाद विश्वविद्यालय। इनसे जुड़े सैकड़ों की संख्या में महाविद्यालय। सब कुछ तो है। इससे इनकार कौन कर सकता है। रोजी-रोटी की जरूरत वाली शिक्षा का अभाव है। आगे बढ़ने के प्रयास अभी भी शुरु नहीं हो सका है। कुछ निजी संस्थान खुले जरूर लेकिन गुणवत्ता के स्तर पर बहुत पीछे हैं। यानी शिक्षा के स्तर पर आगे रहने वाला पूर्वांचल पिछड़ रहा है। ध्यान किसी का आखिर इस ओर क्यों नहीं है। समाज को आगे लेने जाने वाला दूसरा वर्ग राजनीतिकों का है जो गर्त में समाता जा रहा है। ग्राम प्रधानी, ब्लॉक प्रमुखी, जिला परिषदी ही नहीं विधा्यक और सांसद भी अपराधी चुने जाने लगे हैं। बड़े शान से लोगों में उन्हीं चर्चा भी होती है। अफजल, मुख्तार, उमानाथ, रमानाथ, धनंजय, हरिशंकर, शाही और न जाने कितनों के नाम हैं, जिनके नामों को चौराहों की दुकानों पर महिमामंडित किया जाता है। युवा वर्ग उन्हीं से प्रेरणा भी लेता है। बस हो गया कल्याण? गिरावट का अंदाजा लगाया जा सकता है। सभी विकास के कार्यों में परसेंट यानी हिस्सा मांगते हैं। यही उनकी हनक भी है। गिरावट इस स्तर तक पहुंच गई है, जो लोगों में घर करते जा रही है। रोकने वाला कोई नहीं है। राजनीति के मार्फत जिन्हें नेतृत्व करना था, उस पर इन अपराधियों का कब्जा है। कबीर, गौतम बुद़ध और गुरु गोरक्ष के इस पूर्वांचल में अब दुख ही दुख है। इसके माथे पर कहीं संजरपुर है तो कहीं गरीबी, बेकारी और भुखमरी का कलंक। पूर्वांचल की उपेक्षा पर यहां के लोग भी शायद ही सोचते हैं। और सोचते हैं तो फिर मन मसोस कर उसी भीड़ का हिस्सा बन जातें हैं तो इन अपराधियों का रोज सुबह-शाम महिमामंडित करती रहती है। मैं आपको पूर्वजों की गौरवगाथा सुनाकर अपना ज्ञान नहीं परोसना चाहता, जिससे शायद सभी परिचित हैं। ब्यूरोक्रेशी में अपनी मजबूत पैठ के बूते हम पूरे देश में जाने जाते थे। अपने ज्ञान-विज्ञान के लिए। लेकिन अब तो हालात बिगड़े नहीं बल्कि बदतर हो गये हैं। गरीबों की एक बड़ी फौज रोजाना ट्रेन में लदकर दिल्‍ली, मुम्‍बई, कलकत्‍ता अथवा हरियाणा के शहरों की ओर रुख कर देते हैं। लेकिन वहां भी दुख ही उठाते हैं। लेकिन यह दुख तब और बढ जाता है जब परदेस गये युवा एड़स लेकर लौटते हैं। उनकी ही नहीं बल्कि युवा पत्नियों की जवानी तिल-तिल कर मरने लगती है।यह सब क्‍यों हुआ। सवालों का ढेर आज बस पूर्वांचल के दुखों को और बढ़ा रहा है, जिसका जवाब भला कौन देगा? वो नेता जो पूर्वांचल के अलग राज्य की मांग रख रहे हैं? झूठ-फरेब और झूठ.....। झांस में तो आ चुका है पूर्वांचल। अपराधियों के, धूर्त और मूर्ख राजनीतिकों के। इससे जाल बट्टे से निकलने में भी बड़े पेंच हैं।

'साहेब' कोई किसान यूं ही नहीं मरता!

जिसने सबको बनाया और जो मौत और तकदीर पर नियंत्रण रखता है, उस खुदा को भी उस वक्त खून के आंसू निकल आते होंगे जब अन्नदाता काल के गाल में समा जाता है. खुदा तो सिर्फ जीवन का दाता है, पालता तो किसान है. दुनिया को पालने वाले किसान इस लोकतंत्र में खुद को पाल नहीं पा रहे हैं. हमें पालने वाले किसान मौत को गले लगा रहे हैं और हम डिनर पर टीवी के सामने बैठकर क्रिकेट के छक्कों पर ताली बजा रहे हैं. हम टीवी फोड़ देते हैं, बरतन तोड़ देते हैं, सोशल साइट्स पर अनसोशल हो जाते हैं, हमारी देशभक्ति जोर मारने लगती जब हमारी टीम हार जाती है. लेकिन हमारा खून नहीं खौलता जब हमें डिनर कराने वाला जिन्दगी की जंग हार जाता है. हमारा अन्नदाता जब फांसी के फंदे को अपने गले का हार बना लेता है, हम चुप रहते हैं, फिर भी हम संवेदनशील कहे जाते हैं, कथित सभ्य भी.

'भारत एक कृषिप्रधान देश है, किसान हमारे अन्नदाता हैं.' इन सारे जुमलों को सुनकर अब हंसी छूट जाती है. गुस्सा आता है. खून खौलता है. 'सियासत से अदब की दोस्ती बेमेल लगती है, कभी देखा है पत्थर पे भी कोई बेल लगती है. कोई भी अंदरूनी गंदगी बाहर नहीं होती, हमें इस हुकूमत की भी किडनी फेल लगती है..' मशहूर शायर मुनव्वर राना के इस शेर सरीखी ही तबीयत 'सरकार' की. सरकार में राज्य से लेकर केंद्र तक को देखें, इसे अलहदा ना समझें क्योंकि सत्ता का स्वरूप एक ही होता है. बेमौसम हुई बारिश के बाद जम्हूरियत की आंखें उम्मीदबर हैं और दिल बेचैन. जुबां खामोश हैं, पर जेहन में सवालों का शोर. बेमौसम बारिश और ओलों से यूपी से लेकर एमपी तक में किसान मौत को गले लगा रहे हैं लेकिन उनकी मौत भी हमारे 'ज़िल्ले इलाही' को जगा नहीं पा रही है. किसानों का इरादा जख्मों पर मरहम लगाने का है, लोग भी हर तरह 'साहेब' के मुंह से इमदाद सुनने को बेसब्र हैं. अपने उघड़े जख्मों पर मरहम लगाने की उम्मीद लगा रहे हैं, दवा तो नसीब नहीं हुई लेकिन मध्य प्रदेश के कलेक्टर साहेब ने उस पर नमक जरूर रगड़ दिया. डीएम साहेब ऑडियो स्टिंग में कह रहे हैं, 'हम तो तंग आ गए हैं रोज-रोज की.....जो मरेगा इसी की वजह से मरेगा क्या... इतने बच्चे पैदा किए तो टेंशन से प्राण तो निकलेंगे ही...पांच-पांच, छह-छह छोरा-छोरी पैदा कर लेते हैं...और आत्महत्या कर हमको बदनाम करते हैं..' ये टेक्नोलॉजी है कि साहेब पकड़े गए. वैसे कमोबेश हम सूबे के साहेब की यही सोच है. मन की बात के जरिए जम्हूरियत से सीधे संवाद कर रहे हैं हमारे जिल्ले इलाही लेकिन उनतक हमारे मन की बात को कौन बताए. जब बीच वाले साहेब की सोच यही है. प्रधानमंत्री ने कॉरपोरेट को सुरक्षा देने के लिए अपनी पूरी 'स्किल' लगा दी है. पूंजीपतियों ने इसे अपने 'स्केल' पर खूब सराहा है. किसानों के मरने की 'स्पीड' वैसे ही बनी हुई है. किसान मरता है तो मरने दो. बस गाय बचा लो. गाय धर्म है, वोट है, फिर सत्ता में आने का जरिया है.

किसानों की मौत से संसद का सीना ‘दुःख और दर्द से छलनी हो जाय’ यह हादसा क्यों नहीं होता! किसानों के जज्बात को, इज्जत से जिन्दा रहने की जिद को नए रास्ते क्यों नहीं मिलते, अभी तक मैं समझ नहीं पाया. मेरे दादा जी अक्सर कहा करते थे कि उत्तम खेती, मध्यम बान, निखिद चाकरी भीख निदान. पूर्वांचल के लोग इस कहावत को अच्छी तरह से समझ जाएंगे. फिर ऐसा क्या हुआ कि सबका 'दाता' भिखारी बनता गया. मुल्क के हुक्मरानों को न केवल इस गहराती गई त्रासदी का पता था बल्कि काफी हद तक वे ही इसके लिए जिम्मेदार भी थे. इतनी बड़ी आबादी के खेती पर निर्भर होने के बावजूद किसानों को लेकर केवल राजनीतिक रोटियां सेंकी गईं, क्योंकि परिणाम नीति और नीयत की पोल खोल देते हैं. मुझे घिन आती है उस देश की व्यवस्था पर जिसके गोदामों में अरबों का अनाज सड़ जाता है पर सरकार भूखमरी के शिकार लोगों में वितरित नहीं करती?

साहेब कोई किसान यूं ही नहीं मरता. उसे मरने पर मजबूर करती है आपकी व्यवस्था, उसे मारता है बेटी की डोली न उठ पाने का दर्द, उसे मारता है अपने बच्चे को रोटी नहीं दे पाने की कसक, उसे मारती है अपने दुधमुंहे बच्चे को दूध देने के लिए बनिये की दुकान पर मंगलसूत्र रखने को मां की मजबूरी, उसे मारती है हमारी और आपकी चुप्पी.